धर्म और राष्ट्रधर्म के संदर्भ में RSS प्रमुख मोहन भागवत के बयानों की विवेचना

 अखिलेश द्विवेदी का कॉलम : धर्म और राष्ट्रधर्म के संदर्भ में RSS प्रमुख मोहन भागवत के बयानों की विवेचना

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसा ।
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम्।।
महा उपनिषद में लिखा यह महावाक्य हमारे सनातन के मूल संस्कारों में प्रमुख है। जिसका अर्थ हैं मेरा ही मेरा नहीं तेरा भी है, तेरा भी सम्मान है। अपने तक ही सीमित रहने वाली छोटी सोच को छोड़कर उदार हृदय रखते हुए पूरी धरती के वासी अपने परिवार का हिस्सा हैं।

(पूरी धरती हमारी है या समस्त विश्व एक राष्ट्र है। इसका मतलब यह नहीं है। हम जिस देश में रहते है वह हमारा राष्ट्र अलग है। इसे केवल उदार हृदय रखने के संदर्भ में देखें।)

हम जिस राष्ट्र की सीमा में रहते हैं। जिस राष्ट्र का खाते हैं, पीते हैं। सुविधाएं पाते हैं, सुरक्षा मिलती है। संविधान है। उस धरती के टुकड़े के प्रति विशेष निष्ठा है। हमारे पूर्वज जिसमें रहे हैं, हमारे मानबिंदु जहां स्थित हैं। वह हमारा राष्ट्र है। भारत को माता कहना हमारी सांस्कृतिक एकता और भावना का प्रतीक है।

हम सबका एक निजी धर्म होता है।राष्ट्र में रहने वाले सभी निवासी जैसे सनातनी,मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्म/पंथ के लोग अपने पुरखों से प्राप्त या इच्छा से अपनाए गए निजी धर्म का पालन करते हुए पूजा पाठ और मान्यताओं के अनुसार लौकिक व्यवहार करते हैं। इसके अलावा प्रत्येक नागरिक का एक राष्ट्र धर्म भी होता है जो निजी धर्म से अलग और श्रेष्ठ है। 

इस बात पर छोटी सोच वाले भड़क उठते हैं। राष्ट्र धर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है। राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति,वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना, सजग होना, राष्ट्रीय हितों के लिए, सुरक्षा और स्वाभिमान के लिए अपनी निजता, अपने सर्वस्व का सतत बलिदान करते रहना ही राष्ट्र धर्म है।

इसी राष्ट्र धर्म की भावना से ओतप्रोत होकर स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारतवासियों को सौ वर्षों तक देवी देवताओं की पूजा से अधिक भारत माता के पूजन को महत्व देना चाहिए। मेरे शब्द अलग हो सकते हैं, पर मूल भाव वही है।

राष्ट्र पर किसी प्रकार की बाहरी और भीतरी विपदा आती है तो प्रत्येक भारतवासी अपना निजी धर्म पीछे करके राष्ट्र देव के ऊपर आई विपदा से निपटने के लिए खड़ा हो जाए, यही राष्ट्र धर्म है। आदरणीय मोहन भागवत जी के इस समय विवादों से घिरे बयान इसी राष्ट्र धर्म की ओर इशारा कर रहे हैं। इस समय देश में आंतरिक खतरा उत्पन्न हो रहा है। तेजी से धर्मांतरण और नव बौद्धों का सनातन पर प्रहार (रामचरित के बहाने हो या अन्य उपायों से), हिंदुओं का तेजी से दूसरे मत की ओर पलायन व्यथित करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुओं की एकता और भारत को परम वैभवी हिंदू राष्ट्र बनाने का स्वप्न लेकर बनाया गया था। हिंदुओं की एकता तभी संभव है जब हिंदू समाज समरस हो। दलितों को पुरारियों का प्रशिक्षण देना और मंदिरों में उनकी नियुक्ति समानता के प्रयासों की एक कड़ी है।

मुस्लिम आक्रमणों के बाद इस्लाम का प्रसार हुआ और जबरन धर्मांतरण हुआ । अंग्रेज आए तो ईसाई मिशनरियां समानता और सेवा का ढिढोरा पीटती हुए अंधाधुंध धर्मांतरण में जुट गई। गरीबी और छुआछूत से त्रस्त जनता उनके बहकावे में आ गई। वर्तमान समय में ईसाइयों से अधिक नवबौद्धों से खतरा पैदा हो गया है जो सर्वण समाज से घृणा करते हैं। ब्राह्मण बनिया भारत छोड़ो, जैसे नारे इसी कुंठित विचारधारा का परिणाम हैं। इतना ही नहीं जिस सिक्ख पंथ को हम अपना और सनातन का अंग मानते हैं उनमें भी विद्रोह और नफरत की आवाज उठ रही है। अलग खालिस्तान की मांग इसका प्रमाण है।

गजवा ए हिंद का सपना देख रहे कट्टरपंथी इसी ताक में बैठे हैं कि कब भारत में हिंदुओं के बीच पारस्परिक घृणा से अलगाव, अलगाव से विद्रोह की जुगत भिड़ाए बैठे इन नापाकों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए ही मोहन भागवत जी हिंदू एकता के लिए प्रयासरत हैं। उनके बयान इसी संदर्भ में देखे जाने चाहिए।


( ये लेखक के अपने विचार हैं )

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